Natasha

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राजा की रानी

फिर भी जाना ही चाहिए, पीछे हटने से काम नहीं चलेगा। और सो भी कल ही। यही सोचने लगा कि इस जाने को कैसे सम्पन्न करूँ। बचपन का एक रास्ता जानता हूँ वह है गायब हो जाना। बिदा की वाणी नहीं, लौटकर आने की झूठी दिलासा नहीं, कारण का प्रदर्शन नहीं, प्रयोजन का- कर्त्तव्य का विस्तृत विवरण नहीं; सिर्फ मैं था और अब मैं नहीं हूँ, इस सत्य घटना के आविष्कार का भार उन लोगों पर छोड़ देना जो पीछे रह गये हैं, बस। निश्चय कर लिया कि अब सोना तो होगा नहीं, ठाकुरजी की मंगल आरती शुरू होने के पहले ही अन्धकार में शरीर ढंककर प्रस्थान कर दूँगा। पर दिक्कत है कि पूँटू के दहेज का रुपया छोटे बैग समेत कमललता के पास है। लेकिन उसे रहने दो। कलकत्ते से, और नहीं तो बर्मा से चिट्ठी भेज दूँगा, उससे एक काम यह भी होगा कि जब तक उन्हें लौटा न देगी तब तक कमललता को बाध्यै होकर यहीं रहना पड़ेगा, पथ-विपथ पर जाने का सुयोग नहीं मिलेगा।


जो कुछ रुपये मेरे कुरते की जेब में पड़े हैं, वे कलकत्ते तक पहुँचने के लिए काफी हैं।

बहुत रात इसी तरह कट गयी। चूँकि बार-बार संकल्प किया था कि सोऊँगा नहीं, शायद इसी कारण न जाने कब सो गया! पता नहीं कि कितनी देर-तक सोया, पर अचानक ऐसा लगा कि स्वप्न में गाना सुन रहा हूँ। एक बार खयाल किया कि रात का व्यापार शायद अभी तक समाप्त नहीं हुआ है, फिर सोचा कि शायद प्रत्यूष की मंगल आरती शुरू हो गयी है, पर काँसे के घण्टे का सुपरिचित दु:सह निनाद नहीं है। असम्पूर्ण अपरितृप्त निद्रा टूटकर भी नहीं टूटती, ऑंखें खोलकर देखा भी नहीं जा सकता। किन्तु, कानों में प्रभाती के सुर में मीठे कण्ठ का सादा धीमा आह्नान पहुँचा-

जागिये गोपाल लाल, पंछी बन बोले।

रजनी कौ अन्त मयौ, दिनने पट खोले॥

“गुसाईं जी, और कितनी देर तक सोओगे? उठो।”

बिछौने पर उठ बैठा। मसहरी उठाई, पूर्व की खिड़की खुली हुई है- सामने की आम्र-शाखाओं में पुष्पित लवंग-मंजरी के कई बड़े-बड़े गुच्छ नीचे तक झूल रहे हैं। उनकी सैंधों में से दिखाई दिया कि आकाश में कई जगह हल्के लाल रंग का आभास है, जैसे अंधेरी रात में सुदूर ग्राम के अन्त में आग लग गयी हो। मन में कहीं कुछ व्यथा-सी होने लगी। कुछ चमगीदड़ उड़ करके अपने आवासों को लौट रहे हैं। उनकी पंखों की फड़फड़ाहट बार-बार कानों में आने लगी। ऐसा लगने लगा कि रात्रि खत्म हो रही है। यह नीलकण्ठों, बुलबुलों और श्यामा पक्षियों का देश है। मानो, यह उनकी राजधानी 'कलकत्ता शहर' है और यह विशाल बकुल-वृक्ष (मौलसिरी) उनके लेन-देन और काम-काज का 'बड़ा बाजार' है जहाँ दिन के वक्ती की भीड़ देखकर अवाक् हो जाना पड़ता है। तरह-तरह की शकलें, तरह-तरह की भाषा और रंग-बिरंगी पोशाक का बहुत ही विचित्र समावेश है। रात को अखाड़े के चारों ओर के वन में डाल-डाल कर उनके अगणित अड्डे हैं। नींद खुल जाने की आहट कुछ-कुछ पाई गयी। उससे मालूम हुआ कि मानो हाथ-मुँह धोकर वे तैयारी कर रहे हैं। अब सारे दिन चलने वाले नाच-गान का महोत्सव शुरू होगा। ये सब लखनऊ के उस्ताद हैं जो थकते भी नहीं और कसरत भी बन्द नहीं करते। भीतर वैष्णवों का कीर्तन शायद कभी बन्द भी हो जाय, परन्तु बाहर इस बला के बन्द दोने की सम्भावना नहीं है। यहाँ पर छोटे-बड़े, भले-बुरे का विचार नहीं है। इच्छा और समय चाहे हो या न हो, गाना तुम्हें सुनना ही पड़ेगा। इस देश की, मालूम होता है, यही व्यवस्था है, यही नियम है। याद आया, कल सारी दोपहरी-भर पीछे के बाँस के बन में दो पपीहों के उच्च गले की 'पिया पिया' पुकार की अविश्रान्त होड़ से मेरी दिवा-निन्द्रा में काफी विघ्न हुआ था; इस पर मेरी ही तरह क्षुब्ध हुआ कोई जल-काक नदी किनारे के वृक्ष पर और भी कठोर कण्ठ से बार-बार उनका तिरस्कार करके भी उन्हें चुप नहीं कर सका था। भाग्य अच्छा था कि इस देश में मोर नहीं है, नहीं तो उनके इस उत्सव के अखाड़े में आ पहुँचने पर तो मनुष्य टिक ही नहीं पाता। सो जो भी हो, दिन का उपद्रव अब भी शुरू नहीं हुआ था। शायद और भी थोड़ा-सा निर्विघ्न सो सकता किन्तु इसी समय गत रात्रि का संकल्प याद आ गया। परन्तु, अब चुपचाप खिसक चलने का भी मौका नहीं रहा, प्रहरियों की सतर्कता से काम बिगड़ चुका था। नाराज होकर बोला, “मैं 'गोपाल' भी नहीं हूँ और मेरे बिछौने में लाल भी नहीं हैं। इस समय आधी रात को सोते से जगाने की भला कहो तो क्या जरूरत थी?”

वैष्णवी ने कहा, “रात कहाँ है गुसाईं, तुम्हारी तो आज सुबह की गाड़ी से कलकत्ते जाने की बात थी! मुँह-हाथ धो लो, मैं चाय तैयार कर लाती हूँ। नहाना नहीं। आदत नहीं है, बीमार पड़ सकते हो।”

“हाँ, बीमार पड़ सकता हूँ। सुबह की गाड़ी से जब मेरी इच्छा होगी चला जाऊँगा, पर यह तो बताओ कि तुम्हें इस विषय में इतना उत्साह क्यों है?”

उसने कहा, “और किसी के उठने के पहले मैं तुम्हें बड़े रास्ते तक पहुँचा जो आना चाहती हूँ गुसाईं।” उसका चेहरा स्पष्टत: नहीं दिखाई दिया, पर बिखरे हुए बालों की ओर देखकर कमरे की इतनी कम रोशनी में भी यह जान गया कि वे गीले हैं, स्नान से निबटकर वैष्णवी तैयार हो गयी है।”

“मुझे पहुँचाकर फिर आश्रम में ही लौट आओगी न?”

वैष्णवी ने कहा, “हाँ।”

रुपयों की उस छोटी-सी थैली को बिछौने पर रख उसने कहा, “यह रहा तुम्हारा बैग। रास्ते में होशयारी रखना- रुपये एक बार देख लो।”

एकाएक कुछ कहने के लिए शब्द न सूझे। फिर कहा, “कमललता, तुम्हारा इस रास्ते पर आना मिथ्या है। एक दिन तुम्हारा नाम था उषा, आज भी वही उषा हो- जरा भी नहीं बदल सकी हो।”

“क्यों, बताओ?”

“तुम भी कहो कि मुझसे रुपये गिनने के लिए क्यों कहा? गिन सकता हूँ यह क्या तुम सच समझती हो? जो सोचते कुछ और हैं और कहते कुछ और हैं उन्हें कपटी कहते हैं। जाने के पहले मैं बड़े गुसाईंजी से शिकायत कर जाऊँगा कि आश्रम के खाते से तुम्हारा नाम काट दें। तुम वैष्णव-दल के लिए कलंक हो।”

वह चुप रही। मैं भी क्षणभर मौन रहकर बोला, “आज सुबह मेरी जाने की इच्छा नहीं है।'

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